Thursday, January 1, 2009

कश्मीर तुम्हारे आँगन में.................

कश्मीर तुम्हारे आँगन में हम पुष्प चढ़ाने आयेगे,
खेली है होली खूनों से हम दीप जलाने आयेगे|
जो घाटी कल तक गुलशन थी नावों में मंगल होते थे,
कितनें ही नव दम्पत्तियों के भाग्य के लेखे बनते थे|
कश्मीर आज वीरान हो तुम फिर से आवाद बनायेगे,
खेली है होली खूनों से हम दीप जलाने आयेगे|
ऊँचा मस्तक ऊँची चोटी वक्षस्थल जिसका तना हुआ.
पानी बरसे या चले बरछी जिसने सब कुछ है बहुत सहा|
कश्मीर तुम्हारे द्वार पर हम बन्दनबार लगायेगे,
खेली है होली खूनों से हम दीप जलाने आयेगे|
कश्मीर तेरी रक्षा के लिये कितनी माँओं ने लाल दिये,
कितनी बहनों के उजड़े सुहाग कितने ही लोग शहीद हुये|
जो हुये शहीद कारगिल में उनकी रजधूलि लगाने आयेगे,
खेली है होली खूनों से हम दीप जलाने आयेगे|
अमरीका में बसने वाले हम संतान तो भारत माँ की है,
हम हुये प्रवासी भारतीय तो क्या जन्में भारत के अंचल में हैं|
गर पड़ी जरुरत भारत माँ को शिर भेंट चढ़ानें आयेगे,
खेली है होली खूनों से हम दीप जलाने आयेगे|
वैष्णव माता सीमा पर जो हर क्षण रक्षा करती है.
दुश्मन के चीर कलेजों को कश्मीर की रक्षा करती है|
ऐसी दयालु माता को हम शीश झुकानें आयेगे,
खेली है होली खूनों से हम दीप जलाने आयेगे|

यह कैसा अमरीका है

सब साधन संम्पन्न यंहा फिर भी मन सूना-सूना है.
मन में कितना सूनापन है यह कैसा अमरीका है|
मातृ -भूमि को छोड़ यंहां मैं विमान चढ़ कर आयी थी,
कितनी ही स्म्रतियों को मैं मन में संजो कर लायी थी |
इस अमरीका की धरती पर फिर अपनें याद बहुत आए ,
पछ्तानें से क्या होता सब कुछ तो वह्नी छोड़ आए |
कितनी है मनमोहक दुनिया फिर भी मन सूना-सूना है |
मन में कितना सूना पन है यह कैसा अमरीका है |
एक स्वप्न था अमरीका में भारत नया बनानें का,
अपनें देश की महिमा की ध्वजा यंहा फहराने की |
भारत की संस्कृति को जन मानस तक पहुचानें की .
वेद और गीता के सार को हर घर तक ले जानें की|
लेकिन सब कुछ है विपरीत यंहां पर न संस्कृति न गीता है.
मन में कितना सूना पन है यह कैसा अमरीका है|
सोचा था अमरीका जाकर मैं कुबेर बन जाउंगी .
अपना निज का ले विमान फ़िर वतन लौट कर जाउंगी|
कंही वृक्ष पर डालर होंगे उन्हें तोड़ ले जाउंगी ,
डालर वृक्ष का छोटा पौधा अपनें आँगन में लगाउंगी |
डालर वृक्ष नहीं दिखता है यह कैसा अमरीका है ?
मन में कितना सूना पन है यह कैसा अमरीका है |









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पाती

भारत से आई थी पहली जो पाती उस पाती को पढ़ कर बहुत थी मैं रोयी,
पाती को पलटा पलट कर के देखा किसकी थी पाती समझ में न आई|
जिसनें भी भेजी थी प्रेम की पाती उसमें किसी का पता ही नहीं था,
बड़ी कोशिश की निर्रथक रही थी यही सोच कर मैं बड़ी देर रोई
भारत से आई थी पहली जो पाती उस पाती को पढ़ कर बहुत थी मैं रोयी,
भाई ने भेजा कि बहनों ने भेजा कि मेरे किसी हितैषी ने भेजा,
इतना था मालुम कि जिसनें भी भेजा उसने बहुत रो रो कर लिखा था.
धुल गये थे अक्षर सभी आँसुओं से यही देख कर मैं बिलख कर के रोई|
भारत से आई थी पहली जो पाती उस पाती को पढ़ कर बहुत थी मैं रोयी,
जो कुछ भी अक्षर बचे थे उस खत में उन अक्षरों को जोड़ा मिलाया,
आधे अधूरे उन शब्दों में देखा तो एक सम्पू्र्ण शब्द माँ बचा था,
माँ शब्द को फिर ह्रदय से लगाकर बड़ी देर सिसकी बड़ी देर रोई|
भारत से आई थी पहली जो पाती उस पाती को पढ़ कर बहुत थी मैं रोयी,