Thursday, January 1, 2009

यह कैसा अमरीका है

सब साधन संम्पन्न यंहा फिर भी मन सूना-सूना है.
मन में कितना सूनापन है यह कैसा अमरीका है|
मातृ -भूमि को छोड़ यंहां मैं विमान चढ़ कर आयी थी,
कितनी ही स्म्रतियों को मैं मन में संजो कर लायी थी |
इस अमरीका की धरती पर फिर अपनें याद बहुत आए ,
पछ्तानें से क्या होता सब कुछ तो वह्नी छोड़ आए |
कितनी है मनमोहक दुनिया फिर भी मन सूना-सूना है |
मन में कितना सूना पन है यह कैसा अमरीका है |
एक स्वप्न था अमरीका में भारत नया बनानें का,
अपनें देश की महिमा की ध्वजा यंहा फहराने की |
भारत की संस्कृति को जन मानस तक पहुचानें की .
वेद और गीता के सार को हर घर तक ले जानें की|
लेकिन सब कुछ है विपरीत यंहां पर न संस्कृति न गीता है.
मन में कितना सूना पन है यह कैसा अमरीका है|
सोचा था अमरीका जाकर मैं कुबेर बन जाउंगी .
अपना निज का ले विमान फ़िर वतन लौट कर जाउंगी|
कंही वृक्ष पर डालर होंगे उन्हें तोड़ ले जाउंगी ,
डालर वृक्ष का छोटा पौधा अपनें आँगन में लगाउंगी |
डालर वृक्ष नहीं दिखता है यह कैसा अमरीका है ?
मन में कितना सूना पन है यह कैसा अमरीका है |









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3 comments:

Sanjeev Mishra said...

atyant sundar evam hriday sparshi rachna.vastvikta ko chitrit karti hui.
badhayee sweekar karen.

Nandini said...

Very touching poem.I can feel your painthrough your words.

Unknown said...

A BIg salute Buaa Ji