Wednesday, December 31, 2008

याद आता है अब घर अपना........

जाती हूँ भारत जब जब मैं अब सब बदला लगता है,
फिर भी उन पतली गलियों में कुछ कुछ अपनापन लगता है|
जाड़े के दिन धूप में बैठे मन्दिर पर बाते करते थे,
ऊन सिलाई लेकर स्वेटर बैठ वहीं बुना करते थे|
अब जाती हूँ तो दादी के घर अलाव नहीं जलता है,
जलते उपलों में भी अब शकरकंद नही भुनता है|
दादी के घर में भी अब सन्नाटा सा लगता है.
फिर भी उन पतली गलियों में कुछ कुछ अपनापन लगता है|
छोटे बच्चे दीदी कहकर मुझसे लिपट लिपट कहते थे,
दीदी हमें समोसा लादो पेंसिल वे माँगा करते थे|
आज वे बच्चे बड़े हो गये वे अब मां बाप बन गये|
कुछ बच्चे तो अभी वही हैं कुछ बच्चे परदेशी हो गये|
अब बेटी बहू बुआ कहती हैं दीदी कोई नहीं कहता है|
फिर भी उन पतली गलियों में कुछ कुछ अपनापन लगता है|
होली में घर घर में जाकर गुझिया पूड़ी खाती थी,
पहन के बढ़िया बढ़िया कपड़े होली मेले में जाती थी|
सबसे मिलन यहीं होता था सभी गले मिला करते थे,
गुलाब जल की पिचकारी से प्रेम से हम भीगा करते थे|
वे ही गलियाँ सूनी हो गयी सब अनजाना सा लगता है़
फिर भी उन पतली गलियों में कुछ कुछ अपनापन लगता है|
घर में था छोटा सा पट्टू अब वह पिंजरा खाली लगता है,
जिसमें पक्षी लाल थे रहते वह पिंजरा सूना लगता है|
जिस कमरे को लीपपोत कर मैं सुन्दर सुथरा रखती थी,
चाहे कितनी झंझा आये मैं तो वहीं पढ़ा करती थी|
आज उसी को देख देख कर मेरा मन झिझका करता है,
फिर भी उन पतली गलियों में कुछ कुछ अपनापन लगता है|
बिजली थी जो कभी न जाती,पानी सारे दिन आता था,
भरकर घड़े सुराही रखती पानी खूब ठंडा लगता था|
दरवाजे पर मट्ठा बिकता, दही द्वार पर मिल जाता था,
चाट बेचनें वाला भी खटखट तवा वहीं करता था|
गाय बाँधने वाला हिस्सा अब खाली खाली लगता है,
फिर भी उन पतली गलियों में कुछ कुछ अपनापन लगता है|
संस्कृति सारी छिन्न हो गयी घूँघट अब सपनें में है,
देख पश्चिमी पोशाके लगता क्या भारत में है|
शालीनता की मूर्ति बनी नारी आभूषण से सजती थी जो,
सिन्दूर उतार पैंट पहन अब मर्दी सी वह लगती है
भारत की वह गरिमा में कुछ कुछ नया नया सा लगता है.
फिर भी उन पतली गलियों में कुछ कुछ अपनापन लगता है|

1 comment:

अभिनव said...

बहुत बढ़िया कविता...